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हम और हमारा मन

हम और हमारा मन


हम और हमारा मन

हमारा  स्वभाव आंनद स्वरूप है। क्या आपने महसूस किया है। क्योंकि हमें सदा ही प्रसन्न रहना ही अच्छा लगता है, हम कभी दुखी होना नहीं चाहते हैं। यूं तो जिंदगी के उतार चढ़ाव में सुख दुख आते हैं और जाते रहते हैं। परंतु दुख आने से मन्न थोड़ी देर के लिए खिन्न  और परेशान  हो जाता है,परंतु  खिन्न होने के बावजूद वो शीघ्र से शीघ्र बस यही चाहता है कि कब खिन्नता छोड़ प्रसन्नता की ओर अग्रसर हो जाऊं। वैसे तो जीवन में सुख दुःख,मान अपमान ये सब लगे रहेंगे पर हम सदा खुशियां ही ढूंढ़ते हैं  तो फिर हम क्यों अपने दुख को अपने साथ चिपका कर उसे और प्रगाढ़ कर देते हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उस दुख पर जब हमारा मन  बुद्धि  हावी हो जाती है, तब वो दुःख गहरा हो जाता है। तब हन अपने को दुखी मान लेते हैं । वास्तव में हम कभी दुःखी होना ही नहीं चाहते क्योंकि हमारा स्वभाव तो बस आंनद स्वरूप ही है।

जीवन में सारा खेल मन और बुद्धि का ही तो है।
हम तो सुखी ही रहना चाहते हैं हम  कभी दुःखी होना नहीं चाहते  लेकिन हम अपने मन को उस के साथ चिपका देते हैं तो  दुखी होते हैं ।
सारा का सारा खेल हमारे मन का ही तो है।  इस मन रूपी घोड़े को सीधा रखने के लिए विवेक रूपी चाबुक बहुत ही जरूरी है नहीं तो ये भटका देगा और गिरा देगा।

मन एक मदमस्त हाथी के समान है । इसने कितने ही ऋषि-मुनियों को खड्डे में डाल दिय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूमि पर पछाड़कर रौंद दे । अतः निरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें।  इसका अस्तित्व ही मिटा दें, समाप्त कर दें ।

हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में प्राण भरकर जोर लगाओ और मन की दासता को कुचल डालो, बेड़ियाँ तोड़ फेंको । सदैव के लिए इसके शिकंजे में से निकलकर इसके स्वामी बन जाओ ।

वास्तव में तो मन के लिए उसकी अपनी सत्ता ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना दिया है । बालक पर विवेकपूर्ण अंकुश हो तभी बालक सुधरते हैं । छोटे पेड़ की रक्षार्थ काँटों की बाड़ चाहिए । इसी प्रकार मन को भी खराब संगत से बचाने के लिए आपके द्वारा चौकीरुपी बाड़ होनी चाहिए ।                              
    मन के चाल-चलन को सतत देखें । बुरी संगत में जाने लगे तो उसके पेट में ज्ञान का छुरा भोंक दें । चौकीदार जागता है तो चोर कभी चोरी नहीं कर सकता । आप सजाग रहेंगे तो मन भी बिल्कुल सीधा रहेगा ।

इसलिये सदैव मन के कान मरोड़ते रहें । इसके पाप और बुरे कर्म इसके सामने रखते रहें । आप तो निर्मल हैं परन्तु मन ने आपको कुकर्मो के कीचड़ में लथपथ कर दिया है । अपनी वास्तविक महिमा को याद   करके मन को कठोरता से देखते रहिये तो मन समझ जायेगा, शरमायेगा और अपने आप ही अपना मायाजाल समेट लेगा ।


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