घर कहां है पत्थरों की नगरी है
भागा भागा फिरता मनुष्य
ये भी पाऊं वो भी पाऊं
उसको खुद की सुध नही है
घर कहां है पत्थरोंं की नगरी है
आगे बढ़ने की चाहत ने
कितना पीछे छोड़ा उसको
पीछे छूटे कितने है अपने
उसको ये मालूम नही है
घर कहां है पत्थरों की नगरी है
भाग दौड़ के इस जीवन में
भूल गए हैं कितने अपने
आदर स्नेह की बाते छूटी
छूटे कितने रिश्ते नाते
घर कहां है पत्थरों की नगरी है
इंसान संवेदनहीन सा लगता है
मनुष्य का स्वभाव कैसा हो गया
जिंदा होकर भी मुर्दा सा लगता है
घर कहां है पत्थरों की नगरी है
@अरुण पांडेय
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@अरुण पांडेय
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